रहम कीजिए...शर्म कीजिए!
ये 2014 की तस्वीर है। तब मैं एक न्यूज़ चैनल में था। वाजपेयी जी पर एक शो प्रोड्यूस करना था। अटल जी के बारे में आडवाणी जी से बेहतर जानकारी कोई नहीं दे सकता, ये तय है। इसलिए आडवाणी जी का इंटरव्यू/बाइट लेने उनके घर गया। वो पृथ्वीराज रोड पर रहते हैं। मैं उस कमरे में ले जाया गया, जहां इंटरव्यू/बाइट करना था। आडवाणी जी से पहले उनके दामाद आए। इंटरव्यू का विषय पूछा और अंदर चले गए। थोड़ी देर बाद आडवाणी जी आए। उस समय उनकी उम्र क़रीब 87 साल थी। उनके साथ बेटी प्रतिभा आडवाणी थीं। पहली बार मैं इतने बड़े नेता के सामने था और मुझे ख़ुद सवाल पूछना था। सवालों का सिलसिला शुरू होने से पहले प्रतिभा जी ने मुझे बताया कि आडवाणी जी भूल जाते हैं। बोलते-बोलते किसी और विषय पर बोलने लगते हैं। इसलिए उन्हें याद दिलाने के लिए मैं बगल में बैठूंगी। कैमरे का फ्रेम ऐसा बनवाइए जिसमें मैं न आऊं। कैमरा सहयोगी ने वैसा ही फ्रेम बनाया और इंटरव्यू शुरू हुआ। आडवाणी जी ने अटल जी से जुड़े संस्मरण बताना शुरू किया। बीच-बीच में कुछ भूलते तो बगल में बैठीं प्रतिभा जी धीमे से बोलतीं और फिर आडवाणी जी संस्मरण सुनाने लगते। बात बढ़ती रही। अचानक अटल जी का एक संस्मरण सुनाते हुए आडवाणी जी भावुक हो गए। वो रोने लगे। वृद्धावस्था में ऐसा होता है। बेटी प्रतिभा ने आडवाणी जी को संभाला। थोड़ी देर में माहौल सामान्य हुआ और फिर सवाल-जवाब पूरा होने के बाद हम दफ़्तर लौट आए।
ये तस्वीर तब की है। मैंने इन्हें कभी सार्वजनिक प्लेटफ़ॉर्म पर पोस्ट नहीं किया। लेकिन आज ये पोस्ट ख़ास वजह से कर रहा हूं। बीजेपी ने गांधीनगर लोकसभा सीट से 6 बार सांसद रहे आडवाणी जी की जगह पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को टिकट दिया। बीजेपी के इस फ़ैसले के बाद बड़े-बड़े स्वनामधन्य पत्रकार और कट्टर विरोधी रहे लोग आजकल आडवाणी जी के हितैषी बन गए हैं। धड़ियाली आंसू बहा रहे हैं कि चेले नरेंद्र मोदी ने गुरू लाल कृष्ण आडवाणी अध्याय का अंत कर दिया। मार्गदर्शक का मार्ग बंद कर दिया। आज ऐसे लोगों पर दया आती है और इसलिए मैंने अपनी तस्वीर के साथ इंटरव्यू का किस्सा साझा किया।
आज आडवाणी जी 92 साल के हैं। जब 87 साल की उम्र में वो बातें भूल जाते थे तो आज उनकी हालत क्या होगी? क्या आज उन्हें हर काम के लिए सहारे की और ज़रूरत नहीं होगी? इसलिए मैं पूछता हूं कि क्या वो सांसद बनकर बहुत बड़े हो जाएंगे? क्या गांधीनगर से टिकट कटने के मुद्दे को तूल देकर लोग आडवाणी जी के साथ ज़्यादती नहीं कर रहे? फिर ऐसी कौन सी पार्टी है और ऐसा कौन सा नेता है, जो 92 साल की उम्र में चुनाव लड़ रहा है या फिर किसी पार्टी ने उसे टिकट दिया है? मुझे नहीं लगता कि जब देश की हर लोकसभा सीट पर पहली बार वोट डालने वाले क़रीबन 1.5 लाख वोटर हों, ये नौजवान वोटर 282 लोकसभा सीट पर हार-जीत तय करने वाले हों तो इस स्थिति में एक वयोवृद्ध नेता पर दांव लगाना उचित होगा। एक ज़िंदा पार्टी बुज़ुर्गों के कंधों पर भविष्य बुनती है। ये परिवर्तन अगली पीढ़ी के हाथों संपन्न होता है, इस लिहाज़ से आडवाणी जी को टिकट न मिलना गतिमान राजनीतिक दल की निशानी है। इसका सबसे बेहतर उदाहरण समाजवादी पार्टी है, जहां आज पार्टी की कमान संस्थापक बुजुर्ग मुलायम सिंह यादव के हाथों नहीं बल्कि नौजवान अखिलेश यादव के पास है। मैं पूछना चाहता हूं कि क्या ये निर्णय ग़लत है। अगर ऐसा नहीं होता तो क्या ये नौजवान पीढ़ी को अवसर से वंचित करना नहीं होता?
अब महान गिरगिटया रंग बदलने वाले पत्रकार तक आंसू बहा रहे हैं। 2002 के गुजरात दंगों के बाद उस हवाई यात्रा का ज़िक्र कर रहे हैं, जिसका वर्णन आडवाणी जी ने अपनी आत्मकथा - मेरा देश, मेरा जीवन - में किया है। आडवाणी जी ने लिखा है कि अटल जी चाहते थे कि गुजरात दंगों के कारण मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी इस्तीफ़ा दें। आडवाणी जी इस निर्णय के पक्ष में नहीं थे। आगे क्या हुआ-आज ये इतिहास बताने की ज़रूरत नहीं। आडवाणी जी की आत्मकथा वाली कहानी में कई दूसरे लोगों - जैसे अरूण शौरी (अटल सरकार में मंत्री और आज नरेंद्र मोदी के विरोधी) - की कहानी मिलाकर परोसी जा रही है। ये साबित किया जा रहा है कि जिस नरेंद्र मोदी को लाल कृष्ण आडवाणी ने उंगली पकड़कर राजनीति सिखायी, जिसने गद्दी बचाई, आज वही भीष्मपितामह मोदी-शाह युग में उपेक्षित है। मैं ऐसा नहीं मानता। आडवाणी जी के साथ उम्र न 2014 में थी और न 2019 में है। गांधीनगर से टिकट न मिलना नौजवान नेतृत्व और नेता को रास्ता देना है। अगर ऐसा नहीं होता तो आडवाणी जी पर मरते दम तक सत्ता की राजनीति में शामिल रहने का आरोप लगता। एक राजनीतिक पार्टी जड़त्व को प्राप्त होती। अब आडवाणी जी आज़ाद हैं। इसी महीने मेरे चैनल के कार्यक्रम में आडवाणी जी आए थे। उनका इंट्रोडक्शन मैंने लिखा जिसकी एक लाइन थी -
“आडवाणी जी वो रथी हैं जिन्होंने भारतीय लोकतंत्र को दो पहियों वाला रथ बनाया।” उनका ये योगदान भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में अविस्मरणीय है। इसलिए एक बार फिर - आडवाणी जी की अवस्था का ख़्याल कीजिए। नरेंद्र मोदी-अमित शाह से पुश्तैनी खुन्नस निकालने के लिए आडवाणी जी को मोहरा मत बनाइए!
ये तस्वीर तब की है। मैंने इन्हें कभी सार्वजनिक प्लेटफ़ॉर्म पर पोस्ट नहीं किया। लेकिन आज ये पोस्ट ख़ास वजह से कर रहा हूं। बीजेपी ने गांधीनगर लोकसभा सीट से 6 बार सांसद रहे आडवाणी जी की जगह पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को टिकट दिया। बीजेपी के इस फ़ैसले के बाद बड़े-बड़े स्वनामधन्य पत्रकार और कट्टर विरोधी रहे लोग आजकल आडवाणी जी के हितैषी बन गए हैं। धड़ियाली आंसू बहा रहे हैं कि चेले नरेंद्र मोदी ने गुरू लाल कृष्ण आडवाणी अध्याय का अंत कर दिया। मार्गदर्शक का मार्ग बंद कर दिया। आज ऐसे लोगों पर दया आती है और इसलिए मैंने अपनी तस्वीर के साथ इंटरव्यू का किस्सा साझा किया।
आज आडवाणी जी 92 साल के हैं। जब 87 साल की उम्र में वो बातें भूल जाते थे तो आज उनकी हालत क्या होगी? क्या आज उन्हें हर काम के लिए सहारे की और ज़रूरत नहीं होगी? इसलिए मैं पूछता हूं कि क्या वो सांसद बनकर बहुत बड़े हो जाएंगे? क्या गांधीनगर से टिकट कटने के मुद्दे को तूल देकर लोग आडवाणी जी के साथ ज़्यादती नहीं कर रहे? फिर ऐसी कौन सी पार्टी है और ऐसा कौन सा नेता है, जो 92 साल की उम्र में चुनाव लड़ रहा है या फिर किसी पार्टी ने उसे टिकट दिया है? मुझे नहीं लगता कि जब देश की हर लोकसभा सीट पर पहली बार वोट डालने वाले क़रीबन 1.5 लाख वोटर हों, ये नौजवान वोटर 282 लोकसभा सीट पर हार-जीत तय करने वाले हों तो इस स्थिति में एक वयोवृद्ध नेता पर दांव लगाना उचित होगा। एक ज़िंदा पार्टी बुज़ुर्गों के कंधों पर भविष्य बुनती है। ये परिवर्तन अगली पीढ़ी के हाथों संपन्न होता है, इस लिहाज़ से आडवाणी जी को टिकट न मिलना गतिमान राजनीतिक दल की निशानी है। इसका सबसे बेहतर उदाहरण समाजवादी पार्टी है, जहां आज पार्टी की कमान संस्थापक बुजुर्ग मुलायम सिंह यादव के हाथों नहीं बल्कि नौजवान अखिलेश यादव के पास है। मैं पूछना चाहता हूं कि क्या ये निर्णय ग़लत है। अगर ऐसा नहीं होता तो क्या ये नौजवान पीढ़ी को अवसर से वंचित करना नहीं होता?
अब महान गिरगिटया रंग बदलने वाले पत्रकार तक आंसू बहा रहे हैं। 2002 के गुजरात दंगों के बाद उस हवाई यात्रा का ज़िक्र कर रहे हैं, जिसका वर्णन आडवाणी जी ने अपनी आत्मकथा - मेरा देश, मेरा जीवन - में किया है। आडवाणी जी ने लिखा है कि अटल जी चाहते थे कि गुजरात दंगों के कारण मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी इस्तीफ़ा दें। आडवाणी जी इस निर्णय के पक्ष में नहीं थे। आगे क्या हुआ-आज ये इतिहास बताने की ज़रूरत नहीं। आडवाणी जी की आत्मकथा वाली कहानी में कई दूसरे लोगों - जैसे अरूण शौरी (अटल सरकार में मंत्री और आज नरेंद्र मोदी के विरोधी) - की कहानी मिलाकर परोसी जा रही है। ये साबित किया जा रहा है कि जिस नरेंद्र मोदी को लाल कृष्ण आडवाणी ने उंगली पकड़कर राजनीति सिखायी, जिसने गद्दी बचाई, आज वही भीष्मपितामह मोदी-शाह युग में उपेक्षित है। मैं ऐसा नहीं मानता। आडवाणी जी के साथ उम्र न 2014 में थी और न 2019 में है। गांधीनगर से टिकट न मिलना नौजवान नेतृत्व और नेता को रास्ता देना है। अगर ऐसा नहीं होता तो आडवाणी जी पर मरते दम तक सत्ता की राजनीति में शामिल रहने का आरोप लगता। एक राजनीतिक पार्टी जड़त्व को प्राप्त होती। अब आडवाणी जी आज़ाद हैं। इसी महीने मेरे चैनल के कार्यक्रम में आडवाणी जी आए थे। उनका इंट्रोडक्शन मैंने लिखा जिसकी एक लाइन थी -
“आडवाणी जी वो रथी हैं जिन्होंने भारतीय लोकतंत्र को दो पहियों वाला रथ बनाया।” उनका ये योगदान भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में अविस्मरणीय है। इसलिए एक बार फिर - आडवाणी जी की अवस्था का ख़्याल कीजिए। नरेंद्र मोदी-अमित शाह से पुश्तैनी खुन्नस निकालने के लिए आडवाणी जी को मोहरा मत बनाइए!
-------------------------
प्रियदर्शन पीडी